होली विषेश- सरगुजा अंचल में जनजातियों की होली की अनोखी परंपरा….

 

0 एक दिन बाद ग्राम बैकोना में होली मनायी जाती है।

0 सेमरा कला में होली पर्व के एक दिन पहले होली मनाने की परम्परा आदिकाल से चली आ रही है।

0 एक माह तक किया जाता होरी गीतों का गायन।

0 दस दिन पूर्व फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष पंचमी को मनाते हैं होली का त्योहार- चेरवा जनजाति

0 होलिका दहन स्थल की राख से जर-बुखार, खाज-खुजली और खसरा ठीक होता है।

लेख -अजय कुमार चतुर्वेदी

प्रतापपुर/सूरजपुर

होली का पर्व हिंदी पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। यह त्योहार बसंत ऋतु में मनाया जाता है, इस लिए इसे बसंतोत्सव भी कहा जाता है। होली का त्यौहार हिंदू धर्म का महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। इसे फगुआ, फागुन, धूलेंडी, छारंडी (राजस्थान) और दोल के नाम से जाना जाता है। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीकात्मक रूप से प्रह्लाद का अर्थ आनन्द माना जाता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है। और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।

सरगुजा अंचल में इसे “होरी“ त्योहार के नाम से जाना जाता है। इस त्योहार के पहले दिन होलिका दहन और दूसरे दिन धूलेंडी, धेुरंडी, धुरखेल और सरगुजा अंचल में “धूर उड़ाना“ के नाम से रंग, अबीर, गुलाल एक दूसरे पर खुशी-खुशी डाला जाता है। ढोल – नगाड़े के साथ होली गीतों का गायन किया जाता है। कहीं कहीं इसे फाग गीत भी कहा जाता है। यह भाईचारे और आपसी प्रेम का त्योहार है। सरगुजा अंचल में स्थानीय जनजातीय समुदाय के लोग अपने पारंपरिक लोक त्योहारों के साथ हर्षोल्लास पूर्वक होली मनाते हैं। जिला पुरातत्व संघ सूरजपुर के सदस्य अजय कुमार चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल की जनजातियों की होली पर शोघ कार्य कर होली त्योहार से जुड़े आदिम जनजातियों की मान्यताएं और परंपराओं पर विस्तृत शोध आलेख तैयार किया है। उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ के उत्तरांचल में जनजातीय बहुल संभाग सरगुजा है यहां गोंड, कवंर उरांव, कोडाकू, कोरवा, पंडो, खैरवार, चेरवा और अघ्रिया जनजाति के लोग मुख्यतः निवास करते हैं। ये लोग जनजातीय त्योहारों के साथ-साथ होली भी पारंपरिक रीति-रिवाज के साथ मनाते हैं। इस त्यौहार से जुड़े सभी जनजातियों में अलग-अलग किंवदंती एवं मान्यताएं प्रचलित हैं। होली त्योहार से जुड़े आदिम जनजातियों की मान्यताएं और परंपराएं इस प्रकार हैं।

* खजूरी गांव और बैकोना गांव की होली – होली पर्व के लेकर एक मान्यता प्रचलित है कि ग्राम खजूरी में होली मनाने के एक दिन बाद ग्राम बैकोना में होली मनायी जाती है। क्षेत्रीय कंवर समाज के अध्यक्ष रामकिशुन पैकराने बताया कि हमारे पूर्वज प्राचीन समय से ऐसी ही होली मनाते आ रहे हैं। उनका मानना था कि खजूरी पुरुष रूप और बैकोना महिला रूप है| इसलिए खजूरी के बाद बैकोना में होली मनायी जाती है। एस नहीं होने पर कोई अनिष्ट होता है। साथ ही खजूरी गाँव की यह भी मान्यता है कि होली का पर्व शुक्रवार के दिन पड़ता है तो एक दिन पहले ही होली मना ली जाती है | और बैकोना गांव होली पर्व के दिन ही होली मनाता है| बैंकोना निवासी द्वारिका प्रसाद ने बताया कि हमारे पूर्वज बताते हैं कि इस नियम का पालन नहीं करने पर गांव में कोई घटना घट जाती है।

* ग्राम सेमराकला की होली – सेमरा कला में होली पर्व के एक दिन पहले होली मनाने की परम्परा आदिकाल से चली आ रही है। ग्रामीणों की मान्यता है कि होली के दिन होली मनाने से नहीं सहता है। इसलिए एक दिन पूर्व मनाने का रिवाज है। ग्रामीण समविलास ने बताया कि हामारे गांव में एक दिन पहले ही होली मनायी जाती है। यदि यह नियम पिछड जाता है तो नहीं फलता है।

* कंवर जनजाति की होली– सरगुजा अंचल में कंवर जनजाति के लोग फाल्गुन महिना के पहले दिन से लेकर अंतिम दिन तक पूरे एक माह तक गांव में घूम – घूम कर सरगुजिहा बोली में होली गीतों का गायन झांझ, मजिरा और मांदर वाद्य यंत्रों के साथ करते हैं। होलिका दहन के दिन इसी स्थल पर होली गीतों का गायन किया जाता हैं। कंवर जनजाति में होली के एक दिन पूर्व सम्मत भरा जाता है। इसके लिए गांव के बाहर एक स्थल का चयन किया जाता है। इस स्थल पर गाय के गोबर से पुताई कर सेमर वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। सेमर वृक्ष की डाली को गांव का कोटवार जंगल से काट कर लाता है। इनकी मान्यता है कि इस डाली को एक बार में ही काटा जाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, जल रहता है। साथ ही एक करिया चिंयां (काला चूंजा) चरा कर भरी हुई सम्मत में डालकर बैगा अग्नि सुलगाता है। सेमर के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। अंत में होलिका (सभी लकड़ी) जल जाती है और प्रह्लाद (सेमर की लकड़ी) बच जाता है। सुबह होलिका दहन स्थल की राख को पांच लोग लेकर ग्राम देव स्थल पर जाते हैं। और महादेव – पार्वती को लगाते हैं। इसके बाद सभी लोग एक दूसरे को उसी राख का टीका और अबीर – गुलाल लगाकर होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं। इसे ही धूर उड़ाना कहते हैं।

जिला सूरजपुर, वि0खं0 प्रतापपुर, ग्राम बैकोना निवासी भवंरनंद पैकरा उम्र 35 वर्ष ने बताया कि कवंर जनजाति में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। पहली मान्यता है कि किसी वृक्ष में फल नहीं लगता है, तो होलिका दहन स्थल की जलती हुई लूठी (जलती लकड़ी) से उस वृक्ष को दागने से उस में फल लगना प्रारंभ हो जाता है। होलिका दहन संबंधित दूसरी मान्यता प्रचलित है कि यदि कोई जानवर बोलता नहीं है या मालिक की बातों को नहीं सुनता है,तो जलती हुई लूठी (जलती लकड़ी) से दागने से वह ठीक हो जाता है। होलिका दहन संबंधित तीसरी मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन के बाद बची हुई सेमर की लकड़ी को शिकार संबंधित हथियारों तीर – धनुष, गुलेल और जाल में लगाने से अच्छी सफलता मिलती है। इसलिए इसके बचे हुए टुकड़े को सभी लोग अपने – अपने घर अवष्य ले जाते हैं। होलिका दहन से संबंधित चौथी मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन की राख को घर में किसी बीमारी या बाधाओं को दूर करने के लिए उसका टीका भस्म के रूप में लगाने और उसे घोलकर पिलाने से सभी व्याधियों दूर होती हैं। इसलिए इस स्थल की राख को अपने घर में साल भर सुरक्षित रखते हैं। होलिका दहन से संबंधित पाचवीं मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन के दूसरे दिन इस स्थल पर तप करने से सभी मन्नतें पूरी होती हैं। कंवर जनजाति के लोग भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण से संबंधित मनमोहक होली गीतों का गायन करते हैं।

लक्ष्मण को शक्ति बान लगने समय का वर्णन इस होली गीत में मनोहारी चित्रण मिलता है- ए होरी रे -ऽऽ राम हाय हाय करी,
लछिमन लाल तो बेहाल में परी। रामा हाय हाय करी,

* गोंड़ जनजाति की होली – गोंड जनजाति में रेंड़ी वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। चटकाही रेंड़ी वृक्ष की डाली को गांव का बैगा (पुरोहित) काट कर लाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, दारू(षराब) जल रहता है। साथ ही एक करिया चिंयां (काला चूंजा) चरा कर भरी हुई सम्मत में डालकर बैगा अग्नि सुलगाता है। रेंड़ी वृक्ष (चटकाही रेड़ी)की डाली को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक माना जाता हैं। जिला सूरजपुर, वि0खं0 प्रतापपुर, ग्राम सौतार निवासी श्री हेमंत कुमार आयम उम्र 51 वर्ष ने बताया कि एक मान्यता प्रचलित है कि किसी वृक्ष में फल नहीं लगता है, तो होलिका दहन स्थल की जलती हुई लूठी (जलती लकड़ी) से उस वृक्ष को दागने से उस में फल लगना प्रारंभ हो जाता है। गोंड जनजाति मे भी भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण से संबंधित मनमोहक होली गीतों का गायन किया जाता हैं। सीता हरण के बाद का सुंदर चित्रण इस होली गीत में सुनने को मिलता है-

ए होरी रे-ऽऽ अशोक विरूछ तरी छोड़ तो रखें।
रानी जो मंदोदरी हर मिले बर आए, मोला छोड़ राखे।
रानी मंदोदरी हर मिले बर आए।

*चेरवा जनजाति की होली -* जिला सूरजपुर, वि0खं0 ओडगी, ग्राम कुदरगढ़ निवासी चेरवा जाति के धनंजय बैगा उम्र 40 वर्ष ने बताया कि कुदरगढ़ क्षेत्र में “हमारे समाज के लोग होली से दस दिन पूर्व फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष पंचमी को होली का त्योहार मनाते हैं। एक दिन पूर्व शाम को सम्मत भरा जाता है। गांव के बाहर एक स्थल का चयन कर वहां सेमर वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते हैं। सेमर वृक्ष की डाली को गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से काट कर लाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, जल रहता है। साथ ही एक करिया चिंयां (काला चूंजा) चरा कर जंगल में छोड़ दिया जाता है। और सम्मत में मुर्गी का एक अंडा डालकर बैगा अग्नि सुलगाता है। सेमर के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। अंत में होलिका (सभी लकड़ी) जल जाती है और प्रह्लाद (सेमर की लकड़ी) बच जाता है। चेरवा जनजाति में मान्यताएं प्रचलित हैं कि जलती हुई होलिका में चावल डालने से दुख, दर्द, कष्ट, रोग, वैर और परेशानी जला कर राख हो जाती हैं। इसलिए चेरवा जाति के लोग जलती हुई सम्मत में चावल डालकर कहते हैं कि “हे सम्मत बाबा हमारे परिवार से दुख, दर्द, कष्ट, रोग, वैर और परेशानियों को जला कर राख कर दें।“

* पंडो जनजाति की होली –  जिला सूरजपुर,वि0खं0 ओडगी, ग्राम लांजीत निवासी श्रीमती अतवारी पंडो उम्र 55 वर्ष ने बताया कि गांव के बाहर एक स्थल का चयन कर वहां चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) की डाली को काट कर लाता है। इस डाली के लेने ग्रामीण लोग भी गाजे – बाजे के साथ जाते हैं। और नाचते-गाते हर्षोल्लास पूर्वक लेकर आते हैं। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, जल और दारू(षराब) रहता है। साथ ही एक करिया चिंयां (काला चूंजा) चरा कर सम्मत में डालकर बैगा अग्नि सुलगाता है। सुबह सभी लोग अबीर-गुलाल और रंग जलती हुई होेलिका में डालने के बाद एक दुसरे को लगाकर भाईचारे और आपसी प्रेम का परिचय देते हैं। चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। पंडो समाज में मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन की राख के उपयोग से जर-बुखार, खाज-खुजली और खसरा ठीक होता है। जिला बलरामपुर-रामानुजगंज, वि0खं0 वाड्रफनगर, ग्राम कोगवार निवासी अखिलेश कुमार पंडो ने बताया कि वाड्रफनगर क्षेत्र के कुछ गांवों में होलिका दहन में सेमर वृक्ष की डाली गाड़ा जाता है। वि0खं0 अंबिकापुर, ग्राम पंचायत चठिरमा के आश्रित गांव बढ़नी झरिया निवासी नरेश प्रसाद पंडो ने बताया कि हमारे क्षेत्र में बैगा के पूजा कराने के बाद गांव का बुर्जूग व्यक्ति होलिका दहन करता है। होलिका दहन में सेमर वृक्ष की डाली रहता है। उन्होने बताया कि मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन स्थल की राख को दलदल खेत और फल न लगने वाले वृक्ष में डालने से ठीक हो जाता है। पंडो जाती में होलिका दहन के बाद बीच में बची हुई लकड़ी को अपने पारंपरिक हथियार तीर-धनुष से निसाना लगाया जाता है। निसाना लगाने के संबंध में मान्यता प्रचलित है कि इससे बुराई, वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) प्रतीकात्मक रूप प्रह्लाद से दूर हो जाये। इसके बाद बची हुई लकड़ी के टुकड़े से सभी को टीका लगाकर, उस स्थल की राख को चारों तरफ फेंक कर धूर उड़ाते हैं, और यहीं से होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं।

* उरांव जनजाति की होली –  उराव जनजाति में होली के पूर्व शाम को होलिका दहन के लिए सम्मत भरा जाता है। इसके बीच में सेमर की लकड़ी गाड़ी जाती है। चारों तरफ अन्य लकड़ियां रखी जाती हैं। सेमर की लकड़ी को गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से काट कर लाता है। और विधि विधान से होलिका दहन स्थल पर गाड़ता है। भोर में दारू, फूल, अच्छत, चावल, जल और अगरबत्ती से पूजा अर्चना कर होलिका दहन करता है। उरांव जनजाति के सरगुजा जिले के विकास खंड सीतापुर, ग्राम पंचायत ढ़ोढ़ागांव के आश्रित ग्राम बोड़ा झरिया निवासी सुंदर राम किंडो उम्र 60 वर्ष ने बताया कि हमारे समाज में इस स्थल की अग्नि को अपने घर ले जा कर उसी से घर का चूल्हा जलाकर पकवान पकाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि होली के दिन से घर में अच्छाई रूपी अग्नि प्रज्वलित होती है, इसलिए ऐसा किया जाता है।

* कोड़ाकू जनजाति की होली –  कोड़ाकू जनजाति में होलिका दहन के दिन शाम से ही पारंपरिक वाद्य यंत्र से लैस होकर फाग गीत गाया जाता है। जिला बलरामपुर – रामानुजगंज, विकासखंड बलरामपुर, ग्राम पंचायत चंपापुर निवासी बेनेदिक कुम्हारिया उम्र 40 वर्ष ने बताया कि होली की पूर्व संध्या में सभी गांव वाले सम्मत भरते हैं। सम्मत के बीच में सेमर की लकड़ी को बैगा (पुरोहित) द्वारा पूजा अर्चना कर गाड़ा जाता है। सेमर की लकड़ी लेने बैगा के साथ चार-पांच कुंवारे लड़के जंगल जाते हैं। और कुंवारे सेमर की लकड़ी काट कर लाते हैं। कुंवारा लकड़ी का मतलब जिस पर कभी टांगी न चलाई गई हो। भोर में होलिका दहन के पूर्व बैगा (पुरोहित) चावल, फूल अगरबत्ती और धूप से पूजा-अर्चना कर एक करिया चिंयां (काला चूंजा) चरा कर सम्मत में डालकर अग्नि सुलगाता है। ग्रामीण लोग पटाखे फोड़ कर खुशियां मनाते हैं। जब पूरी लकड़ी जल जाती है, तो बची हुई सेमर की ठूंठ को गामीण लोग 50 फीट की दूरी से पत्थर से निशाना लगाते हैं। जिसका निशाना लग जाता है। उसे ग्राम प्रमुख के द्वारा एक महुआ का पेड़ इनाम में दिया जाता है। इसके बाद सेमर की ठूंठ को जमीन के बराबर काटा जाता है। फिर खोदकर निकालते हैं। और उसे 4 भाग में फाड़ कर वहीं छोड़ देते हैं। सभी लोग वहां की राख से ही होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं। ग्रामीण लोग गोबर के कंडे में उस स्थल की अग्नि को अपने घर ले जाकर उसी से चूल्हा जलाकर पकवान पकाते हैं। ऐसा करने के संबंध में उनकी मान्यता है कि घर में अच्छाई रूपी अग्नि का प्रवेश हो और बुराई चली जाए। होलिका दहन करने के बाद नदी में स्नान करके ही अपने घर में प्रवेश करते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि सरगुजा अंचल जनजातियां अपनी अलग-अलग मान्यताएं और किंवदंतियों के साथ परंपराओं का निर्वहन करते हुए भाई-चारे, मेल-जोल, आपसी प्रेम और सौहाद्र के साथ होली का त्योहार मनाते हैं।