कछार शिव मंदिर में नवरात्र पर्व की षष्टि दिन भक्तो की उमड़ी भीड़….

पत्थलगांव ✍️जितेन्द्र गुप्ता

गुरुवार रात्रि कछार के शिव मंदिर में नवरात्र के षष्टि के दिन भक्तो ने पूजा अर्चना की भक्त गण आरती में सम्मलित होकर प्रसाद लिया और फिर रोजाना की तरह रात्रि को माता की रसोई के प्रसाद ग्रहण किया

मनोकामना ज्योति कलश दर्शन करने वालो का लगा रहा ताता जो जो अपने नाम या अपने परिवार जनों के सुख शांति और वैभव के लिए मनोकामना ज्योति कलश की ज्योत जलवाए है। वे ज्योति कलश के दर्शन कर माता रानी से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे है।

वही बनारस से पूजन करने आये चंद्रेश्वर महराज ने कहा शास्त्र का पालन क्यों करना चाहिए?

यह एक ऐसा प्रश्न है जो प्रत्येक काल में हर किसी के मन एवं मस्तिष्क में बारम्बार उठता ही रहता है। सभ्यताओं के इस संक्रमण काल में चिंतन विकृत होता जा रहा है। स्वयं सनातन धर्मावलम्बी ही इससे हटकर इस पर प्रश्नचिह्न लगाने में ही बुद्धिमत्ता मान रहे हैं, लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह आचरण उचित है? चलिए स्वयं भगवान से ही पूछा जाए…भगवत्संविधान श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं।

यःशास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्मकर्तुमिहार्हसि॥
(गीता १६.२३-२४)


“जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है। वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को और न परमगति को ही प्राप्त होता है। अतः तेरे लिये कर्तव्य​-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है – (ऐसा जानकर तू) इस लोक में शास्त्रविधि से नियत कर्तव्य​ – कर्म करने योग्य है अर्थात् तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य​-कर्म करने चाहिये।

तात्पर्य यह है कि हम क्या करें और क्या न करें?  इसकी व्यवस्था में शास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहिये। अन्यत्र मिलता है। कि शास्त्र विहित आचरण करने वाले “नर​” होते हैं।और जो मन के अनुसार (मनमाना) आचरण करते हैं। वे “वानर​” होते हैं-
मतयो यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानराः।
शास्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ते नराः॥
सम्भवतः शास्त्र को ही प्रधान बताने हेतु ही ऐसा कहा गया है। गीता में भगवान ने ऐसे मनमाना आचरण करने वाले मनुष्यों को “असुर” की संज्ञा दी है-

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।(गीता १६/०७)

इस प्रकार मनुष्यमात्र को यथासामर्थ्य शास्त्र को ही प्रधान मान कर तदनुरूप ही आचरण का प्रयास करना चाहिये। वाल्मीकि रामायण में भी महाराज दशरथ कहते है।
विधिहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कर्ता विनश्यति।
च्छिद्रम् हि मृगयन्ते स्म विद्वांसो ब्रह्म राक्षसाः।