अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में सरगुजा अंचल के लगभग 70 लोक वाद्यों की प्रस्तुति : अजय चतुर्वेदी

* लगभग 70 लोग लोक वाद्यों की प्रस्तुति देकर सरगुजा अंचल को गौरवान्वित किया *

*  देश और विदेश के देश शोधार्थियों, विद्वान और विषय विशेषज्ञों ने अपनी अपनी प्रस्तुति दी *

 

प्रतापपुर/ सूरजपुर

छत्तीसगढ़ राज्य के पंडित दीन दयाल उपाध्याय सभागार रायपुर और रजत जयंती हॉल केंद्रीय विश्वविद्यालय बिलासपुर में 10 से 12 फरवरी तक आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में राज्य योजना आयोग, छत्तीसगढ़ कला,पर्यटन,पुरातत्व एवं संस्कृति कार्य समूह के सदस्य अजय कुमार चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल से विलुप्त होते लोक वाद्यों और परंपरा से दूर होते लोकगीतों को प्रस्तुति दे कर सरगुजा अंचल को गौरवान्वित किया।

भारतीय और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सहभागिता के बहुआयामी पहलू विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का आयोजन गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ (भारत), भारतीय इतिहास संकलन समिति, छत्तीसगढ़ प्रांत, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली, नव नालंदा महाविहार, नालंदा, बिहार, केंद्रीय उच्च तिब्बती अध्ययन संस्थान, सारनाथ (यूपी), सांची बौद्ध विश्वविद्यालय – भारतीय अध्ययन, सांची (म.प्र.), शहीद महेंद्र कर्म विश्वविद्यालय, बस्तर, जगदलपुर, छत्तीसगढ़ द्वारा आयोजित और भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली, भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित किया गया था।

अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में देश – विदेश के शोधार्थियों, विद्वानों ,इतिहासकारों और विषय विशेषज्ञों ने अपनी अपनी प्रस्तुति दी । अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में अजय चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल पर विशेष प्रस्तुति *“सरगुजा अंचल के संस्कृति से जुड़े लोक वाद्य और लोकगीत“* विषय पर दी । उन्होंने बताया कि सरगुजा अंचल की लोक वाद्यों में शेर को रिझाने और भागाने की क्षमता होती थी। वर्तमान परिवेश में इस ओर ज्यादा ध्यान न देने के कारण और आधुनिकता की आड़ में अब धीरे-धीरे हमारी लोक संस्कृति, लोक परंपराएं नष्ट होती जा रही हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर और सरगुजा आदिवासी बहुल अंचल में पहले लोक वाद्यों की बहुलता थी। संरक्षण के अभाव में लोक वाद्य विलुप्त होते जा रहे हैं। मूर्त धरोहर लोक वाद्यों को संरक्षित कर ही अमूर्त संस्कृति को बचाया जा सकता है।

सरगुजा के लोक-वाद्यों को देखने और सुनने से ऐसा लगता है कि इसका प्राचीन नाम ‘‘सुरगुंजा’’ इन वाद्यों और सुरीली आवाज़ों की ही देन है। सरगुजा अंचल में पहले लोक वाद्यों की आवाज से देवी-देवता, मनुष्य और जंगली जानवरों को रिझाया जाता था। झुनका बाजे(षिकारी बाजा) की आवाज से शेर भी रिझ कर दौड़ा चला आता था। और घूमरा बाजे की आवाज से दूर भागता था।

*अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरगुजा अंचल से लगभग 70 लोक वाद्यों को प्रस्तुत किया.

सरगुजा अंचल से विलुप्त होते प्राचीन लोक वाद्यों पर खोजकर्ता व्याख्याता अजय कुमार चतुर्वेदी ने सरगुजा अंचल से लगभग अभी तक 70 लोक वाद्यों की खोज कर उनकी आवाजों को पुनर्जीवित कर सुरक्षित किया है। इनके वाद्य यंत्रों पर आधारित 14 कड़ियों में आकाशवाणी अुबिकापुर से धारावाहिक रूपक भी प्रसारित हो चुका है। आज सरगुजा की लोक संस्कृति को बचाने के लिए इस बात की नितांत आवश्यकता है कि एक ऐसा संग्रहालय विकसित किया जाए जिसमें सरगुजा अंचल के विलुप्त होते लोक संस्कृति की निशानियों को संजो कर रखी जा सके। आज इन लोक वाद्यों की आवाज मानों रूंधे हुए स्वर में यही कह रही हैं कि हमें सुरक्षा और पुनर्जीवन चाहिए। क्योंकि हम कोई और नहीं, सरगुजा अंचल के वही पारंपरिक वाद्य हैं, जिनकी पहचान आज भी अंचल के नाम के साथ जुड़ी है। सुरों से गुंजित होने वाला हमारा सरगुजा।